राजर्षि पुरूषोत्तमदास टण्डन: जीवन वृत्त
श्री पुरूषोत्तमदास टंडन का जन्म प्रयाग में 1 अगस्त 1882 ई0 को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री शालिग्राम टंडन था। वे राधास्वामी सम्प्रदाय के मतावलम्बी थे। परिवार के एकमात्र चिरप्रतीक्षित बालक होने के कारण स्वभावतः टंडन जी का पालन-पोषण बड़े ही लाड़-प्यार से हुआ। टंडन जी की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही एक मौलवी साहब के द्वारा हुई जो बच्चों को हिन्दी पढ़ाया करते थे। घर की प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त होने पर इलाहाबाद के बालकों की शिक्षा के लिए तत्कालीन प्रमुख शिक्षण संस्था सी0 ए0 वी0 स्कूल की नवीं कक्षा में, जो आज की दूसरी कक्षा के समान थी, टंडन जी का प्रवेश कराया गया। टंडन जी प्रारम्भ से ही कुशाग्र बुद्धि के छात्र थे। सी0ए0वी0 स्कूल की शिक्षा की समाप्ति के पश्चात् टण्डनजी की उच्च शिक्षा का श्रीगणेश गवर्नमेन्ट हाई स्कूल में हुआ। विद्याध्ययन के अतिरिक्त वागवर्द्धिनी सभाओं, व्यायाम-क्रीड़ाओं तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी उत्साहपूर्वक भाग लेते थे। इन्होंने इसी गवर्नमेन्ट स्कूल से सन् 1897 ई0 में इन्ट्रैंस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तर्ण की। हाई स्कूल की परीक्षा उर्त्तीण होने के पश्चात् टण्डन जी प्रयाग की सुप्रसिद्ध शिक्षण संस्था कायस्थ पाठशाला इन्टर कालेज में प्रविष्ट हुए। सन् 1899 ई0 में टण्डन जी ने इन्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की और आगे की शिक्षा के लिए उत्तर भारत की सुविख्यात शिक्षण संस्था म्योर सेन्ट्रल कालेज में नाम लिखाया। कालेज में टण्डन जी अपने समकालीन विद्यार्थियों में आदर्श चरित्र के लिए प्रसिद्ध थे। अपने सहपाठियों में अपने अनेेेक असाधारण गुणों के कारण आप ‘जीसस काइस्ट‘ के नाम से प्रसिद्ध थे। आपने म्योर सेन्ट्रल कालेज में बी0 ए0 तथा बी0 एस0 सी0 का सम्मिलित पाठ्यक्रम लेकर अध्ययन प्रारम्भ किया। बी0 ए0 में रूग्णता के कारण इनका एक वर्ष नष्ट हुआ। एक वर्ष गणित का एक प्रश्नपत्र देना ही भूल गये। तीसरे वर्ष मे एक खेदजनक घटना के फलस्वरूप टण्डन जी एक वर्ष के लिए कालेज से निष्कासित कर दिये गये थे। दूसरे वर्ष विज्ञान के विषयों का परित्याग कर ‘‘आर्टस‘‘ के विषय, इतिहास तथा राजनीति लेकर इन्होंने बी0 ए0 की परीक्षा 1904 में पास किया। बी0 ए0 करने के बाद टण्डन जी ने वकालत का अध्ययन किया और दो वर्षो की अवधि में यह परीक्षा समाप्त की।
वकालत की परीक्षा पास करने के तत्काल वाद ही आपने जुलाई मास से प्रयाग की छोटी अदालत में प्रैक्टिस प्रारम्भ कर दी और शीघ्र ही मुवक्किलों के भी शीघ्र ही कंठहार बन गये और आपको आशानुकूल सफलता प्राप्त हुई। वकालत करते हुए भी टण्डन जी का विद्यानुराग अक्षुण्ण बना रहा और सन् 1907 में आपने एम0 ए0 की परीक्षा इतिहास लेकर पास की। इन्ही दिनों टण्डन जी का संपर्क अपने पड़ोसी, भारतीय संस्कृति के उद्धारक महामना मदनमोहन मालवीय जी और हिन्दी के सुविख्यात साहित्यिक पं0 बालकृष्ण भट्ट जी से हुआ। दो वर्षो तक छोटी अदालत में वकालत करने के बाद सन्1908 में टण्डन जी हाईकोर्ट में वकालत करने लगे।हाईकोर्ट में आपने डा0 सर तेज बहादुर सप्रु के जूनियर रहकर वकालत प्रारम्भ की। डा0 कैलाशनाथ काटजू भी टण्डन जी के कानून के दिनों में सहपाठी थे। टण्डन जी इसी पेशे के साथ हिन्दी साहित्य सम्मेलन का कार्य और ‘अभ्युदय‘ पत्र का सम्पादन भी करते थे।
हाई स्कूल की परीक्षा दे चुकने के पश्चात् सन् 1897 ई0 मे वे ज्येष्ठ मास में आपका शुभ विवाह श्रीमती चन्द्रमुखी देवी के साथ हुआ। इस युगल दम्पति को, ईश्वर को अनुकम्पा से, सात पुत्र और दो कन्याएँ हुई। टण्डन जी सच्चे अर्थो में एक आदर्श गृहस्थ थे। गार्हस्थ्य धर्म की सभी मार्यादायों की प्रतिष्ठा रखते हुए भी वीतराग संन्यासी थे। जिन दिनों आप इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत कर रहे थे, उन्हीं दिनों महामना मालवीय जी के अनुरोध से आप नाभा रियासत के कानून मन्त्री होकर नाभा चले गये। अपनी कार्यक्षमता के परिणामस्वरूप टण्डन जी शीघ्र ही वहां के विदेशमन्त्री हो गये। वहाँ आपके लोकरंजनकारी कार्यो की छाप हर दिशा में पड़ी। सन् 1914 से लेकर सन् 1918 ई0 के कुछ काल पर्यन्त टण्डन जी नाभा राज्य विधि मन्त्री तथा विदेश मन्त्री का पद सम्भाला। किन्तु इसी अवधि में एक ऐसी समस्या उपस्थित हुई कि टण्डन जी को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा। इस प्रकार चार वर्षो तक अपने नगर इलाहाबाद से दूर रहने के उपरान्त टण्डन जी पुनः यहाँ आ गये और वकालत के कार्यो में लग गये।
टण्डन जी की युवावस्था के दिनों में, जबकि उनका भावुक ह्दय स्वतंत्र भारत को देखने के लिए लालायित था, तत्कालीन वायुमण्डल की प्रभावकारी छाप उन पर पड़ी। वे भारतीय राजनीति में अनुरंजित होने लगे। सर्वप्रथम टण्डन जी सन् 1906 में ही इलाहाबाद से कांग्रेस के प्रतिनिधि चुने गये। उस कांग्रेस का सभापतित्व किया था बम्बई के सुप्रसिद्ध नेता श्री दादाभाई नौरोजी ने जो बम्बई के मुकुटविहीन सम्राट् कहे जाते थे। उन दिनों गाँधी जी की राजनीति कांग्रेस में नहीं आयी थी किन्तु वह आस-पास मँडरा रही थी। इस कांग्रेस के अधिवेशन में, जो कलकत्ते में हुआ, इलाहाबाद के अन्य प्रतिनिधियों में पं0 मदनमोहन मालवीय, पं0 मोतीलाल नेहरू, सर तेज बहादुर सप्रु एवं पं0 अयोध्यानाथ थे। ये सभी उन दिनों इलाहाबाद के चोटी के वकीलों मे थे। राजनीति के साथ-साथ हिन्दी के प्रति भी उनका नैसर्गिक आकर्षण क्रमशः अंकुरित और प्रस्फुटित हो रहा था। राष्ट्रीयता और हिन्दी प्रेम का सतत अभ्युदय हो रहा था। हिन्दी के प्रति इनके प्रेम का स्फुरण इनके विद्यार्थी जीवन में हो गया था। हिन्दी सहित्य के प्रथम सम्मेलन में ही, जो 10 अक्टूबर सन् 1910 में महामना मालवीय जी की अध्यक्षता में वाराणसी में हुआ, हिन्दी के हितैषियों की सूक्ष्म दृष्टि से टण्डन जी का उत्कट हिन्दी प्रेम छिपा न रह सका। सर्वसम्मति से टण्डन जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम मंत्री चुने गये। सम्मेलन की स्थापना के तीन चार वर्ष बाद तो सम्मेलन का सब काम आपके ऊपर आ पड़ा । ‘अभ्युदय‘ पत्र के माध्यम से टण्डन जी की वाणी और विचारों का परिष्कार हुआ। हिन्दी गद्य के विशिष्ट शैलीकार पं0 बालकृष्ण भट्ट द्वारा संस्थापित एवं संचालित हिन्दी‘ ‘प्रदीप‘ में भी आप लेखादि लिखा करते थे।
सत्याग्रह आन्दोलन के कारण प्राप्त कारावास दण्ड से मुक्त होने पर राजर्षि टण्डन जी ने सारे प्रान्त का दौरा किया। इसके पूर्व ही आप न केवल सारे उत्तर प्रदेश (तत्कालीन युक्त प्रदेश) में ख्यातिलब्ध थे, बल्कि सारे देश में आपके सुयश का विस्तार हो गया था। स्पष्टवादिता, त्याग और लगन ने लोगों को उनकी तरफ आकृष्ट किया। उत्तर प्रदेश में टण्डन जी का एक विशिष्ट स्थान बन गया। आप युक्तप्रान्त के ‘गाँधी‘ कहे जाने लगे। सन् 1923 में गोरखपुर में प्रान्तीय कांगेस का अठारहवाँ अधिवेशन हुआ। राजर्षि टण्डन जी इस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये। पुरूषोत्तम दास टण्डन भारतीय किसानों के प्राण और भारतीय किसान आंदोलन के अग्रदूत रहे हैं। ग्रामीण जनता में रहना, उनमें काम करना, उनके साथ मिल जुलकर रूखा-सूखा खा लेना, यह उनके जीवन का सााधारण नियम बन गया था। सन् 1930 और 1932 के दोनों आन्दोलनों में उन्होंने ‘लगान बन्दी‘ का नेतृत्व किया। सन् 1930 और 31 में मंदी के कारण किसानों के सामने जो समस्या आ गई थी, उनके निराकरण में टण्डन जी ने प्रमुख भाग लिया तथा प्रदेश कांग्रेस कमेटी द्वारा तत्सम्बन्धी निर्दिष्ट कार्यो का संचालन किया। टण्डन जी इस प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन को अग्रसारित करते हुए, भारतीय किसानों के हित का भी सम्बर्द्धन करते चल रहे थे।
हिन्दी साहित्य के प्रति टण्डन जी का विशेष अनुराग था। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति पद के लिए टण्डन जी का नाम कई बार प्रस्तावित किया गया किन्तु वे उसे सदा अस्वीकार करते रहे। किन्तु कानपुर अधिवेशन जो सन् 1923 में हुआ, टण्डन जी सर्वसम्प्रति से हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष मनोनीत हुए। टण्डन जी की हिन्दी सेवा का मूल्यांकन सहज नहीं है। हिन्दी के अभ्युदय, उत्थान तथा सम्बर्द्धन में आपका अपूर्व योगदान है। इस दिशा में आपकी सेवायें बहुमुखीं तथा प्रयास-बहुल हैं। सम्मेलन के सम्बर्द्धन में एक ओर जहाँ उन्होंने साहित्यकों से सहायता ली तो दूसरी ओर हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन करने के लिये आपने राष्ट्रपिता गाँधी जी एवं राजेन्द्र बाबू जैसे नेताओं के साथ समन्वय स्थापित करने का अभूतपूर्व कार्य किया। उन्होंने सदैव साहित्यकों का राजनीतिज्ञों से बढ़कर सम्मान किया। इसके लिए टण्डन जी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में, ‘मंगला प्रसाद‘ पारितोषिक की स्थापना की, जो प्रत्येेक वर्ष किसी न किसी उत्कृष्ट हिन्दी सेवी को, उसकी उत्कृष्ट कृति पर दिया जाता है। टण्डनजी 1921 के सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने के कारण तत्कालीन विदेशी सरकार का कारावास का दण्ड भी ग्रहण कर चुके थे। कारावास के पूर्व ही वे अपनी आय के एकमात्र साधन वकालत के पेशे का परित्याग कर चुके थे। कारगृह के शारीरिक अवरोध ने घरेलू अर्थ व्यवस्था को जर्जर कर दिया और टण्डन जी की आर्थिक अवस्था क्षीण हो गई। इनके मित्रों और हितैषियों की मन्त्रता हुई कि टण्डन जी पुनः वकालत के व्यवसाय में लीन हों, किन्तु एक बार किसी वस्तु को तिलांजलि देकर पुनः उसे ग्रहण करना अपने जीवन के आदेशो़ क्रम में इन्हें स्वीकार्य भी नहीं था। अपनी जेल यात्रा के पूर्व ही टण्डन जी ने एक निश्चय ले लिया था, वकालत के धंधे में पुनः नहीं लैटने का और वे अन्त तक उस पर दृढ़ रहे। ऐसी परिस्थिति में यह स्वाभाविक था कि उनकी आर्थिक अवस्था क्रमशः क्षीणतर होती जाती, किन्तु इसके विपरीत उनका मनोबल ऊँचा उठता गया और इस आर्थिक दुर्दिन का रंचमात्र प्रभाव भी उनके राष्ट्र-सेवा के व्रत पर नहीं पड़ा। जिस समय वे कारावास में असहयोग की सजा व्यतीत कर रहे थे, उनके कुछ सह्रदय मित्रों ने आर्थिक सहायता के लिये हाथ बढ़ाया, किन्तु टण्डन जी ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस संकट कालीन दशा में भी वे अत्यन्त शान्तचित तथा अनुद्विग्न-मना रहे। आर्थिक-वैषम्य-जनित विषाद की एक मलिन रेखा भी उनके मानस-पटल पर किसी ने नहीं देखी। इसी समय पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जी इलाहाबाद आये। उनकी पैनी दृष्टि से टण्डन से टण्डन जी की आर्थिक विपत्रता का चित्र ओझल न रह सका। उन्होंने टण्डन जी को पंजाब नेशनल बैंक के मैनेजर के पद को स्वीकार करने का आग्रह किया। टण्डन जी ने पंजाब नेशनल बैंक के लाहौर स्थित बैंक के प्रधान कार्यालय के मैनेजर पद का भार मई सन् 1925 में ग्रहण किया और अगस्त सन् 1929 तक इस पद पर बने रहे। इस कार्य भार को टण्डन जी ने केवल कुशलता से संभाला ही अपितु बैंक की कार्य प्रणाली में ऐसे सुधार किये जिससे बैंक की स्थिति सुदृढ़ हो गई। लाला जी का चुनाव सर्वंथा प्रशंसनीय रहा और जनसमाज में बैंक की साख स्थिर हुई।
साइमन कमीशन के विरोध में देश में राष्ट्रव्यापी आन्दोलन हुआ। पंजाब केसरी लाला लाजपतराय लाहौर में निकले जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे। वे पुलिस की लाठी से बुरी तरह आहत हुए और 17 नवम्बर 1928 को अस्पताल में उनका स्वर्गवास हो गया। लाला जी स्वर्गवास के उपरान्त यह समस्या हुई कि लोक सेवक मण्डल का अध्यक्ष कौन हो। उस समय मण्डल एक सप्तवर्षीय शिशु था। अन्त में गांधी जी के हाथ में निश्चत दिया गया। गाँधी जी ने टण्डन जी से कहा कि आपको मंडल का सभापति होना चाहिये। टण्डन जी ने स्वीकार किया। इस प्रकार टण्डन जी जनवरी 1926 से लोकसेवक मंडल के अध्यक्ष बने। सन् 1930 में वे लाहौर से प्रयाग लौट आये और कांग्रेस के कार्य में पूरी तरह लग गये। इस प्रकार टण्डन जी के पंजाब नेशनल बैंक की सेवा कार्यकाल समाप्त हुआ। इसके पश्चात वे लोक सेवक मंडल की अध्यक्षता तथा उसके माध्यम से राष्ट्र-निर्माण के कार्य में ऐसे प्रवृत्त हुए मानो उन्होने कभी एक प्रमुख बैंक के सर्वप्रधान अधिकारी के रूप में सुखमय जीवन बिताया ही न हो। लोक सेवक मंडल के अध्यक्ष होते ही टण्डन जी ने पहला काम किया कि लाला लाजपतराय-स्मारक-निधि के लिए पाँच लाख रूपयों का संग्रह किया। इस निधि के लिए आपने विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया मंडल तथा कांग्रेस के दुष्कर दुहरे दायित्व का सुन्दर निर्वाह किया जिसकी राष्ट्रव्यापी प्रशंसा हुई।
गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का सूत्रपात किया। सामूहिक प्रार्थना के पश्चात् उन्होंने समुद्र तट पर 5 अप्रैल 1930 को नमक बनाया। 6 अप्रैल 1930 से सारे देश में सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। लोग स्थान-स्थान पर नमक बनाकर कानून भंग करने लगे टण्डन जी ने नमक सत्याग्रह के लिए अपनी निजी भूमि जिसे उन्होंने ‘तपोभूमि‘ नाम दिया था, समर्पित कर दिया। आपको डेढ़ वर्ष की सजा हुई और नैनी जेल पहुँचाये गये। देशव्यापी आन्दोलन के संदर्भ में उत्तर प्रदेश में भी कारबन्दी आन्दोलन व्यापक रूप से चला। इस आन्दोलन के प्रमुख नेता श्री पुरूषोत्तम दास टण्डन, श्री जवाहरलाल नहेरू, आचार्य नरेन्द्र देव आदि कई चोटी के व्यक्ति थे। श्री पुरूषोत्तमदास टण्डन ने करबन्दी आन्दोलन को सुसंगठित रूप दिया। किसानों के इस आन्दोलन से प्रदेश सरकार की नंीव हिल गयी। अतः ऐसे आन्दोलन को बिल्कुल खत्म कर देने का प्रबन्ध गवर्नमेन्ट की तरफ से तेजी से शुरू हो गया। टण्डन जी गिरफ्तार करके नैनी जेेल में भेज दिये गये। एक लम्बी जेल यात्रा के बाद टण्डन जी जब बाहर निकले तब आन्दोलन काफी शिथिल हो चुका था। गांधी जी ने ‘मैकडानल्ड एवार्ड‘ के सम्बन्ध में कारावास में उपवास किया और उसके फलस्वरूप उन्हें जो आजादी हरिजन कार्य करने की मिली वह एक तरह से कांग्रेस का कार्यक्रम बन गया। टण्डन जी को इस कार्य में पहले से ही प्रेम था- उस समय भी उन्होंने उसमें रूप से भाग लिया।
1937 में टण्डन जी पहली बार उत्तर प्रदेश असेम्बली के स्पीकर चुने गये। टण्डन जी 1933 और 1948 में दो बार उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष रहे। सन् 1950 में वे अखिल भारतीय कांग्रेेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गये किन्तु तत्कालीन प्रधान मन्त्री पंडित नेहरू के साथ कार्य समिति में निर्माण के प्रश्न पर उनका गहरा मतभेद हो गया और फलस्वरूप वे कांग्रेस के अध्यक्ष पद से यह कहते हुए कि ‘‘आज देश में नेहरू के नेतृत्व की आवश्कता है। और नेहरू देश की आवाज हैं पृथक हो गये‘‘।
कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्याग पत्र देने पर भी वह नेहरू जी का आग्रह मान कर कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य बने रहे। इस प्रकार राजनीतिक आचरण का उच्चतम दृष्टान्त रखा। किन्तु इस घटना ने उनके जीवन में पदो ंके प्रति एक स्थायी अनास्था उत्पन्न कर दी और उसके बाद वह कभी पदों पर नहीं गये। सन् 1953 में टण्डन जी को पं0 जवाहर लाल जी की ओर से उडी़सा प्रदेश के राज्यपाल का पद मिला किन्तु उसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने एक सहयोगी को 20 जनवरी 1954 के पत्र में लिखा- ‘‘ वस्तुतः आपकी तथा मण्डल के अन्य सदस्यों की उस राय को कि मुझे श्री जवाहर लाल जी की ओर से किये गये प्रस्ताव को स्वीकार कर लेना चाहिये मैंने गंभीरतापूर्वक विचार किया। दिल्ली से लौटने के बाद मैं अधिक दिनों तक इलाहाबाद से बाहर रहा। मैं 5 तारीख को जवाहर लाल जी के पत्र का उत्तर लिखने बैठा और उनके प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए उत्तर लिखने लगा। किन्तु मेरा हृदय विद्रोह कर उठा और अन्ततोगत्वा अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए पद स्वीकार न करने के लिए मैंने क्षमा मांगी‘‘। सन् 1956 में टण्डन जी इलाहाबाद शहर से लोक सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। उन दिनों के उनके भाषणों की सर्वत्र व्यापक चर्चा हुई। उनके भाषण भाव, भाषा, विषयगाभीर्य, प्रतिपादन शैली सभी दृष्टियों से प्रेरणादायक, पठनीय और माननीय है। उन्होने हिन्दी, राष्ट्र की रक्षा, विदेशी नीति, राष्ट्रीय नीति सभी विषयों पर एक निष्पक्ष और विशेषज्ञ राजनीतिज्ञ के रूप में अपने को सिद्ध किया। सन् 1956 में वह उत्तर प्रदेश से राज्य सभा के सदस्य चुने गये। किन्तु वहाँ उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा। इसी अवधि में उन्होंने पं0 नेहरू की षष्टी पूर्ति के उपलक्ष्य में डा0 राजेन्द्र प्रसाद, डा0 राधाकृष्णन, श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी आदि के, सम्मिलित सम्पादकत्व में नेहरू-अभिनन्दन-ग्रस्थ निकाला। तत्पश्चात् संसदीय विधिक और प्रशासकीय शब्दों के संग्रह हेतु बनाई गई संयुक्त समिति, जो 5 मई 1956 को गठित की गई थी, के सभापति बनाये गए। टण्डन जी ने इस समिति के कार्यो में अथक परिश्रम किया जिसके फलस्वरूप वे अत्यधिक बीमार पड़ गये और दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल में भर्ती किये गये। किन्तु मार्च 1956 में फिर अस्पताल से आकर सीधे काम में जुट गये मानो उन्हें ऐसा लगा कि रूग्णावस्था के कारण वह अपने कर्त्तव्य से विमुख हो रहे हैं। इस समिति में लोक सभा के 22 तथा राज्य सभा के 11 सदस्य थे। पीछे 5 सदस्य और नामांकित किये गये। प्रायः एक वर्ष के निरन्तर प्रयास के पश्चात् टण्डन जी ने एक महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित किया। इस अवसर पर आपको ‘पिछड़ा वर्ग आयोग‘ का अध्यक्ष प्रस्तावित किया गया लेकिन आपने उसे स्वीकार नहीं किया।
हिन्दी साहित्य सम्मेलन के निर्माण में आपने जो अभूतपूर्व योगदान दिया, उसकी उपमा देना सरलता से संभव नहीं। सन् 1910 से लेकर जीवन के अन्त दिनों तक वह लगातार इस संस्था के हित सम्बर्द्धन के लिए अपने को न्योछावर होम करते रहे। टण्डन जी ने अनवरत चलने वाली मुकदमेंबाजी से मानो क्लान्त होकर सम्मेलन को राज्याश्रय में देने को निश्चय कर लिया। और अन्त में सम्मेलन विधेयक बनवाकर ही दम लिया। सम्मेलन एक राष्ट्रीय संस्था घोषित की गई। 3 अक्टूबर 1960 को राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद के कर कमलों से आपको, प्रयाग में आयोजित एक बृहत् समारोह में, अभिनन्दन प्रन्थ भेंट किया गया और सत् 1961 में उन्हें ‘भारतरत्न‘ की उपाधि दी गई।
टण्डन जी ने अपने सिद्धातों का कभी बलिदान नहीं किया। बड़े से बड़े आकर्षण के सम्मुख वह कभी नही झुके। आपको सरयू तट पर 15 अप्रैल 1948 को देवरहवा बाबा द्वारा विशाल जन समूह के हर्षध्वनि के बीच ‘राजर्षि‘ की उपाधि दी गई। 1 जुलाई 1962 को प्रातः काल 10 बजकर 5 मिनट पर कल्याणी देवी प्रयागराज स्थित निवास स्थान पर उनका महाप्रयाग हुआ। उनकी मृत्यु का समाचार जैसे ही नगर में फैला उनके प्रशंसक और श्रद्धालु अपने प्रिय नेता के अन्तिम दर्शन के लिए एकत्रित हुए और लाखों लोग शव यात्रा में सम्मिलित हुए। स्वर्गीय प्रधान मन्त्री लालबहादुर जी शास्त्री प्रारम्भ से अन्त तक पैदल ही शवयात्रा में सम्मिलित हुए। ऐसे थे राजर्षि पुरूषोत्तम दास टण्डन। उनकी पुण्य स्मृति को सादर नमन जिसे भुलाया जाना संभव नही।
राजर्षि टण्डन जी के जीवन की महत्वपूर्ण तिथियाँ एवं घटनाएं निम्नवत् है :-
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1888 : 1 अगस्त इलाहाबाद में जन्म।
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1890 : सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में प्रवेश।
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1892 : राधास्वामी मत का उपदेश लिया।
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1894: मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण की।
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1897 : हाई स्कूल।
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1899 : कांग्रेस के स्वयंसेवक बने।
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1899: इण्टरमीडिएट।
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1900 : प्रथम संतति (कन्या) की प्राप्ति।
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1901 : म्योर सेण्ट्रल कॉलेज से निष्कासित।
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1903: पिता श्री सालिगराम जी का निधन।
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1904 : बी०ए०
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1905: राजनीतिक जीवन का प्रारम्भ।
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1905 : बंगभंग आन्दोलन से प्रभावित होकर स्वदेशी का व्रत धारण किया।
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1905 : गोपाल कृष्ण गोखले के अंगरक्षक के रूप में कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया।
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1905 : 'बन्दर सभा महाकाव्य' नामक व्यंग्य कविता 'हिन्दी प्रदीप' में प्रकाशित।
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1905 : विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के रूप में चीनी खाना छोड़ दिया।
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1906: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि चुने गए।
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1906 : एल.एल.बी.
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1907 : एम०ए० (इतिहास)
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1907: चमड़े का जूता पहनना छोड़ दिया।
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1908 : हाईकोर्ट में सर तेजबहादुर सप्रू के जूनियर रहकर वकालत प्रारम्भ की।
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1909: 'अभ्युदय' साप्ताहिक पत्र के संपादक।
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1910 : 10 अक्टूबर को हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना और मालवीय जी की अध्यक्षता में अधिवेशन, जिसमें टण्डन जी को सम्मेलन का प्रथम प्रधानमंत्री चुना गया।
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1910 : 'मर्यादा' मासिक पत्रिका के संपादक।
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1911 : इलाहाबाद में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का द्वितीय अधिवेशन करवाया।
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1914 : लखनऊ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का द्वितीय अधिवेशन करवाया। पं॰ श्रीधर पाठक उस अधिवेशन के अध्यक्ष थे।
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1914 : नाभा रियासत के विदेश मंत्री नियुक्त हुए।
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1914 : इलाहाबाद में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का द्वितीय अधिवेशन करवाया।
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1916 : जबलपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का द्वितीय अधिवेशन।
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1918 : नाभा रियासत की नौकरी से त्याग पत्र दे दिया।
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1918 : 22 दिसम्बर हिन्दी विद्यापीठ, प्रयाग की स्थापना की।
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1918 : टण्डन जी के प्रयास से हिन्दी साहित्य सम्मेलन का इन्दौर में अधिवेशन हुआ जिसके अध्यक्ष महात्मा गाँधी थे।
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1918: इलाहाबाद म्युनिसिपैलिटी बोर्ड के चेयरमैन।
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1919 : 24 अक्टूबर 'किसान सभा' स्थाई समिति की बैठक के सभापति।
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1919 : 'किसान पुस्तक माला' का संकलन एवं प्रकाशन।
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1920 : पटना में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का दसवाँ अधिवेशन करवाया।
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1920 : असहयोग आंदोलन में गाँधी जी के आह्वान पर हाईकोर्ट की वकालत छोड़ दी।
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1921: सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने के कारण १८ माह का कारावास। यह टण्डन जी की पहली जेल यात्रा थी।
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1921 : 'कांग्रेस स्वयं सेवक दल' के प्रथम संयोजक बने।
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1921 : इलाहाबाद की मेला तहसील के महावीर मेले में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई।
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1921- 22 नमक का परित्याग।
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1923 : पुन: म्युनिसिपिल बोर्ड के चेयरमैन नियुक्त हुए।
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1923 : चेयरमैनशिप से त्यागपत्र दे दिया।
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1923 : हिन्दी साहित्य सम्मेलन कानपुर में १३वें अधिवेशन के अध्यक्ष।
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1923 : गोरखपुर में प्रांतीय कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए।
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1923 : उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष।
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1923 : हिन्दी साहित्य सम्मेलन की खपरैल की इमारत बनाकर कार्यालय स्थापित किया।
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1924 : दिल्ली में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कराया।
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1924 : पंजाब नेशनल बैंक के मैनेजर पद पर नियुक्त हुए।
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1926 : लाला लाजपत राय के आग्रह से 'सर्वेण्ट्स ऑफ पीपुल्स सोसाइटी' में सम्मिलित हुए।
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1928: पंजाब नेशनल बैंक के मैनेजर पद से त्याग पत्र दे दिया।
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1929 : 'लोक सेवा मण्डल' के अध्यक्ष।
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1929 : बैंक की नौकरी छोड़ दी।
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1930: 26 जनवरी महात्मा गाँधी के नेतृत्व में प्रथम स्वतंत्रता दिवस मनाया।
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1930 : केन्द्रीय किसान संगठन की स्थापना की।
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1930 : हृदय रोग से ग्रस्त घोषित किये गए।
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1930 : बस्ती में बाबू शिवप्रसाद गुप्त और आचार्य नरेन्द्र देव के साथ पकड़े गये। १३ माह की सख्त कैद और जुर्माना हुआ।
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1930- 32 टण्डन जी के नेतृत्व में किसानों ने सरकार को लगान देना बन्द कर दिया।
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1931; 29 दिसम्बर इलाहाबाद में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन हुआ, जिसमें टण्डन जी को गिरफ्तार कर नैनी जेल भेज दिया गया।
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1931 : गोंडा जेल में किसान आंदोलन के सिलसिले में पुन: पकड़े गये।
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1931 : नैनीताल में किसानों की दयनीय दशा पर एक वक्तव्य दिया।
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1932: सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया।
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1932: गोरखपुर जेल में बन्द किये गए
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1933 : 2 जुलाई को लाहौर जेल के 'फ्री प्रेस ऑफ इंडिया' के प्रतिनिधि को एक वक्तव्य दिया जो गणेश शंकर विद्यार्थी और कानपुर के दंगों से सम्बंधित था।
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1934: नागपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का २५वाँ अधिवेशन करवाया।
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1934: नागपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का २५वाँ अधिवेशन करवाया।
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1934 : 27 मार्च से लेकर ५ मार्च तक उड़ीसा में रहे।
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1934: जून से लेकर अप्रैल १९३६ तक इलाहाबाद और लखनऊ के बीच संचालन समिति की बैठक में भाग लेने के लिए आते-जाते रहे।
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1936- 37 : नयी प्रान्तीय धारा सभाओं के चुनाव हुए। प्रयाग नगर से टण्डन जी निर्विरोध चुने गए। २९ जुलाई 1937 को सदस्यता की शपथ ली।
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1936 : 6 फरवरी इलाहाबाद में किसानों की दुर्दशा पर एक मार्मिक वक्तव्य दिया।
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1936 : 20 जून 'एडवांस' पत्र में किसानों की दयनीय अवस्था पर एक वक्तव्य प्रकाशित हुआ।
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1936 : युक्त प्रान्तीय कमेटी बैठक में टण्डन जी उपाध्यक्ष चुने गए
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1936 : बनारस जिला राजनैतिक सम्मेलन की अध्यक्षता की।
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1936 : हिन्दी साहित्य सम्मेलन के नागपुर अधिवेशन में 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' की स्थापना, जिसके सदस्य टण्डन जी भी थे।
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1936 : कलकत्ता की यात्रा की और एक विशाल जन समूह के समक्ष सार्वजनिक भाषण दिया।
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1936 : 4 अप्रैल महात्मा गाँधी के द्वारा दिल्ली में हिन्दी साहित्य सम्मेलन में संग्रहालय की स्थापना करवायी, जिसका संकल्प १९२३ के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में लिया गया था।
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1936- 37 : हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तत्वावधान में गठित 'व्याकरण समिति' के संयोजक।
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1937 : 30 जुलाई सर्वसम्मत से विधान सभा के अध्यक्ष चुने गए
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1937 : 27 अप्रैल 'लोक सेवामण्डल' के धार्मिक अधिवेशन में एक हृदयग्राही भाषण।
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1937 : 26 मार्च दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास के छठवें उपाधि वितरण उत्सव के अवसर पर दीक्षान्त भाषण दिया।
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1938 : हिन्दी साहित्य सम्मेलन का शिमला में अधिवेशन करवाया। सभापति थे पं॰ बाबूराव विष्णु पराड़कर।
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1938 : 20 अक्टूबर को कान्यकुब्ज कॉलेज, लखनऊ में 'हिन्दी की शक्ति' पर व्याख्यान दिया।
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1939 : फरवरी में हृदय रोग का दौरा पड़ा।
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1939 : 14 सितम्बर १९३९ को देश की समस्त विधान सभाओं के मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिया। तब टण्डन जी भी विधान सभा की अध्यक्षता से पृथक हो गए।
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1939 : 3 अक्टूबर को टण्डन जी ने एक सुनिश्चित वक्तव्य दिया जो जर्मनी-पोलैण्ड युद्ध से सम्बंधित था, जिसमें इंग्लैण्ड पोलैण्ड से संधिबद्ध होने के कारण उसके साथ था।
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1939 : काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन करवाया, जिसमें अम्बिका प्रसाद वाजपेई सभापति थे। इसमें आचार्य शुक्ल, श्यामसुन्दर दास, अयोध्या सिंह उपाध्याय, माखनलाल चतुर्वेदी, निराला, राहुल सांकृत्यायन, मैथिलीशरण गुप्त, आचार्य नरेन्द्र देव, राधाकृष्ण दास आदि ने भाग लिया।
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1941 : 2 अप्रैल को बन्दी बनाकर नैनी जेल में रखा गया। वहाँ से फतेहगढ़ सेन्ट्रल जेल ले जाये गए, जहाँ लगभग ८ माह जेल में नज़रबन्द रहने के बाद जेल से छूटे। यह उनकी चौथी जेल यात्रा थी।
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1942 : 'राजनीतिक पीड़ित सहायता कोष' की स्थापना की और कानूनी सुरक्षा की व्यवस्था की। इस व्यवस्था के परिणामस्वरूप सात नवयुवकों की जान बचायी, जिनको फाँसी की सजा मिली थी।
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1944: 22 अगस्त जेल से छोड़े गए।
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1944 : 10 अक्टूबर संयुक्त प्रान्तीय प्रतिनिधि एसेम्बली की स्थापना और बाबू जी उसके अध्यक्ष चुने गये।
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1944 : 'सत्यार्थ प्रकाश' पर सिन्ध सरकार द्वारा लगाये गये प्रतिबंध का खुलकर विरोध किया।
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1944 : जयपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन करवाया।
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1944 : 2 दिसम्बर वीर अर्जुन में एक सन्देश प्रकाशित हुआ, जिसमें 'सत्यार्थ प्रकाश' पर लागाये गये प्रतिबंध का विरोध था।
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1945 : 8 फ़रवरी 'सत्यार्थ प्रकाश' के समर्थन में 'ट्रिब्यून' नामक दैनिक पत्र में एक वक्तव्य प्रकाशित हुआ।
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1945 : आजाद हिन्द फौज के कैदियों की रिहाई के लिए बाबू जी ने धन संग्रह किया और उनकी कानूनी सहायता की।
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1946 : प्रान्तीय असेम्बलियों के चुनाव। बाबू जी सदस्य नियुक्त हुए और पुन: विधान सभा अध्यक्ष चुने गए।
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1947 : उत्तर प्रदेशीय दल का गठन किया।
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1947-48 : 'भारतीय संस्कृति सम्मेलन संस्था' का गठन किया।
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1947: मई में झाँसी के ताल बेहट नामक स्थान पर साम्प्रदायिक समस्या पर एक विशेष वक्तव्य दिया।
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1947 : 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस समारोह में भाग नहीं लिया; क्योंकि देश-विभाजन से अत्यधिक दुखी थे।
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1947 : उत्तर प्रदेश कांगेस के पुन: अध्यक्ष चुने गये।
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1947 : विधान सभा का अध्यक्ष पद छोड़ दिया।
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1948 : 'विधान निर्मात्री' सभा का गठन। बाबू जी को इस सभा का सदस्य चुना गया।
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1948 : कुम्भ के अवसर पर भारतीय संस्कृति सम्मेलन करवाया।
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1948 : 15 अप्रैल पवित्र सरयू नदी के तट पर सन्त देवरहा बाबा द्वारा 'राजर्षि' की उपाधि से विभूषित।
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1948 : कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए पट्टाभि सीतारमैया से हारे।
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1949 : भारतीय संविधान सभा की बैठक हुई, जिसमें टण्डन जी के प्रयासों के कारण संविधान सभा ने देवनागरी लिपि एवं हिन्दी को मान्यता दी।
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1950 : आचार्य कृपलानी के विरुद्ध नासिक कांग्रेस के अध्यक्ष मनोनीत हुए।
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1950 : 14 मई को सोरों शूकरक्षेत्र की यात्रा कर वहाँ के प्राचीन स्थलों के दर्शन किये।
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1951 : कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।
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1951 : 17 फ़रवरी 'मुजफ्फरपुर सुहृद संघ' के वार्षिकोत्सव के अवसर पर टण्डन जी ने इस मन्तव्य का वक्तव्य दिया कि मैंने हिन्दी के पक्ष को सबल करने के लिए ही कांग्रेस जैसी संस्था में प्रवेश किया है।
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1942 : इलाहाबाद से लोकसभा के सदस्य चुने गये।
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1943 : उड़ीसा का राज्यपाल बनना अस्वीकार कर दिया।
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1943 : 20 मई अखिल भारतीय आयुर्वेद शास्त्र चर्चा परिषद के द्वितीय अधिवेशन की अध्यक्षता की।
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1944 : 2 जनवरी को बाँदा में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन करवाया।
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1944 : 16 फ़रवरी राज्य शासन विधेयक पर हिन्दी के सम्बंध में भाषण।
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1944 : 27 मार्च शिक्षा मंत्रालय के अनुदान पर भाषण जिसमें हिन्दी की भरपूर वकालत की गई।
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1945 : 2मार्च को 'उत्तर प्रदेश भूदान यज्ञ समिति' के अध्यक्ष के रूप में एक वक्तव्य प्रकाशित कराया।
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1945 : 26 मई को विन्ध्य प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन के छतरपुर अधिवेशन का उद्घाटन किया।
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1946 : उत्तर प्रदेश से राज्य सभा के लिए चुने गये।
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1946: 3 मई संसदीय विधिक और प्रशासनिक शब्दों के संग्रह हेतु गठित समिति के सभापति नियुक्त हुए।
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1960 : संसद की सदस्यता से त्याग पत्र।
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1960 : 23 अक्टूबर प्रयाग में एक वृहद् अभिनंदन समारोह, जिसमें आपको डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा अभिनन्दन ग्रंथ भेंट किया गया।
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1961 : 26 अप्रैल भारत सरकार द्वारा 'भारतरत्न' की उपाधि से विभूषित किया गया।
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1962 : टण्डन जी के प्रयासों से केन्द्रीय सरकार ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन को 'राष्ट्रीय महत्व की संस्था' घोषित किया।
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1962 : 1 जुलाई प्रात: १० बजकर ५ मिनट पर प्रयाग में पंचतत्व में विलीन।
संदर्भः भारतरत्न राजर्षि पुरूषोत्तम दास टण्डनः व्यक्तित्व एवं संस्मरण, संपादक-लक्ष्मी नारायण एवं ओंकार शरद, ज्योत्सना प्रकाशन, इलाहाबाद।
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